Ssk17:Homepage/ഹിന്ദി കഥാരചന(എച്ച്.എസ്.എസ്)/ഒന്നാം സ്ഥാനം
प्यासी पत्थराई आँखें।
मनुष्यता की चिंगीरियाँ।युगों का भवरापन बढ़ता जा रहा है। साथ ही मनुष्यता नामक शब्द की मौजूदगी घटती जा रही है। सब लोगों के लिए इस भगम-दौड़ में यह शब्द का अर्थ पहचानने केलिए वक्त ही कहाँ है? आदमी कमाने के लिए , न जाने क्या-क्या नहीं करता? इस नवीन युग में लोग जीना ही भूल चुके हैँ। दुपहर का समय है। शांतिनगर इलाका पूरा सब्जी मंडी की तरह भरा हुआ है। शांतिनगर में केवल शांति के अलावा बाकी सब कुछ है। सिर्फ शांति की कमी है। सूरज की रोशनियों का प्रभाव भी बहुत गहरा था। जब सूरज की रोश्नियाँ नीचे उगे छोटी-छोटी घांस पर पड़ती है तो मानो ऐसा लगता है कि स्वयं इंद्र देव ही ऐरावत में सवारककर नीचे धरती पर आ रहे हो। अनोखा दृश्य ही है इस शांतिनगर के इलाके में। लेकिन लोगों को यह सब देखने का वक्त ही कहाँ है ? सडक के पास एक बच्ची को खींचती हुए माँ कह रही है- “कितनी बार कहा है कि विद्यालय से घर पहूँचते ही सरला आई से कहकर ही कहीं बाहर जाया करो। आज देखा, तेरी वजह से मुझे मेरी नौकरी छोड़कर आनी पड़ी। आज का संसार अब पहलेवाली संसार जैसी नहीं रही। चारों तरफ प्यासी आँखें मुंडरा रही है। यह कहते समय माँ की आँखों में डर दिखाई दे रहा है। दोनों उस भीड़ में सभी के साथ आगे बढ़ते जा रहे हैं। माँ कहती है "पायल अगर तू ऐसे चलेगी तो हम दोपहर की गाड़ी क्या बल्कि रात की गाड़ी भी नहीं पकड़ पाएगें।" तभी बेटी ने कहा माँ तुम हमेशा ही ऐसा क्यों पेशाती हो? यह बस नहीं तो सही अगली बस मिल जाएगी"। माँ ने एक दर्द भरी मुस्कुराहट में ही उस सवाल का जवाब दे दिया। माँ और बेटी जल्दी से उस बस पर चढ़े। गाड़ी में बहुत ही भीड़ थी। तबी माँ के पासवाली जगह पर जो बूढ़ी माँ बैठी थी वे उठ गए, उनका जगह आ चुका था और बह बूढ़ी माँ उतर गयी।माँ ने जल्दी बेटी को इशारा करके धुलाया और कहा "बेटी यहाँ आकर बैठ जोओ, यहाँ जगह खाली पड़ी है।" बेटी ने माँ को कहा, “नहीं माँ मैं यहाँ पर खड़ी हूँ, आप बैठ जाओ।" बेटी ने णाँ का जवाब सुनने से पहले ही अपना सिर घुमा लिया। माँ वहाँ बैठ गयी लेकिन उसकी नज़र अपऩी बेटी पर ही थी। गाड़ी की तेज़ी गति और खिड़की में से ठंडी हवाँ के कारण उसे बहुत बुरी तरह नींद आ रही थी। लेकिन अपने इस जवान बेटी के होते वह चैन की नींद ले सकती है? वह खिड़की के बाहर देखती है और पुरानी यादें ताज़ा करती है। ............ उस दिन जब सारा जगह नये साल की प्रतीक्षा कर रहा था। मैं अंधेरी रात में घर की और जा रही थी। नये साल के कारण गाड़ियाँ बहुत कम थी। रात होती जा रही थीं। इसलिए पैदल चलने को सोचा। आसपास कहीं रिक्शा भी नहीं दिखाई दे रहा था। जरूरत होने पर कोई भी रिक्शावाला दिखाई नहीं होता वरना इन रिक्शावालों की वजह से सड़क पर चलने को भी जगह नहीं मिलती।अंधकार का जाल छाया रहा था। मुझे अंधेरे कोई डर नहीं है, अगर डर है तो हमारे समूह से ही है। रोज़ की अखबारों की बुरी खबरें कैसे मैं अनदेखा कर सकती हूँ? अचानक से एक रिक्शे की आवाज़ सुनाई पड़ी। मन थोड़ा बहुत शांत हुआ। जल्दी से मैं ने पीछे मुड़कर देखा और हाथ दिखाया लेकिन रिक्शावाला नहीं रुका। मैं थोड़ी देर उस रिक्शा के पीछे भागी, लेकिन उस भाइ साहब ने रिक्शा नहीं रोका। मन में तूफान ही आने लगा। पैदल चलते-चलते पैर भी दुखने लगे ऐर आसपास पूरा सन्नाटा था। छोटे-छोटे बिल्लों की चीख भी अब मन को डराने लगी। जब मुझे घर की ओर जानेवाली गली दिखाई देने पड़ी थी। तब जाकर मन थोड़ा बहुत शांत हुआ।तभी कुछ लड़के गाड़ियों में जा रहे थे। मेरे भीकर आए तो उन्हों ने गाड़ियों की तेज़ गति कम कर ली।यह देखकर मुझे और भी खबराहट हुई। लेकिन मैं चलती गयी। मेरी गली का मो़ड आनेही वाला था तभी उनमें से एक ने बुलाया। दीदी इतनी रात को कहाँ गयी? मैं आपको छोड़ दूू क्याँ? लेकिन मुझे उसके बोलने में कुछ गलत नहीं लगा। बाकी लड़के जी थे वो चले गये। उसने कहाँ वैसे भी आज सभी मौज मना रहे होंगे और नशे में होंगे और एक अकेली लड़की को इस रार को ऐंसे नहीं चलना चाहिए। तबी एक आवाज़ आई 'सीमा बेटी इतनी देर क्यों लगा दी?” मैं ने देखा तो वह हमारे पड़ोस में रहनेवाले रामू काका थे। तब वह लड़के ने कहा, अच्छा में चलता हूँ और तेज़ी से चला गया। मैं राजू काका के ओर चली। गर पहूँचकर भी इस रात का नशा मेरे सिर से उतर नहीं रहा था। अगले दिन सुबह उठकर जब मैं ने अखबार खोला तो मुझे एक दम से ही साँस रुक गयी। आँखों में धीरे-धीरे अंधेरा आ रहा था।"माँ, उठो.... उठो ...... हमारा जगह आ गया है। " जल्दी मैं वर्तमान में आ गयी। बेटी के साथ में उतरकर घर की ओर चली। मैं ने सोचा कि शायद यही है वो बुरा सपना जो मैं कभी भी याद नहीं करना चाहती।अब मुझे अकेलेपन से ही टर लगता है। घर पहूँचकर मैं ने अपना मुँह पानी से धोया और अंदर कमरे में चली गयी। वहाँ बिस्तर पर रखे हुए अखबार को देखकर उसे वह याद आ गया जब उसने नयी साल के दिन जो अखबार पढ़ा था। उस अखबार में लिखा था कि एच.बी.सी. इलाके में एक युवती को बलात्कार करने की कोशिश की, लेकिन युवति शोर मचाकर लोगों को इकट्टा किया । केवल यह समाचार देखकर नहीं वह डरी जब उसने देखा कि नीचे जो चार युवकों का फोटोस छपा हुआ था वो कोई और नहीं थे बल्कि जिन लड़के से वह रात को मिली थी वही थे ये। मुझे शाॅक सा लगा। तब से लेकर आज तक मुझे इस दुनिया से डर है। सारे ही प्यासी पत्थरी आँखों के साथ लड़कियों को निशाना बना रहे है। लड़कियों को आखिर हम क्या कह सकते हैं। अगर कुछ कहना है तो उनके माता-पिता को कहो जन्म से लेकर लड़कियों को कहते आ रहे हैं कि तुम एक लड़की । लड़की की तरह ही रहो। लड़कों का आदर करो। उनके खिलाफ आवाज़ मत उठाओ। हम लड़कियाँ भीली बन चुकी है और किसी के प्रति भी आवाज़ नहां उठा पाएगी। और लड़कों को कहो कि अगर एक अकेली लड़की को देखा तो उसे इशारा मत समझना बल्कि यह जिम्मेदारी है कि वह घर सही-सलामत पहूँचे। वह यह सब सोचते-सोचते गहरी नींद में पड़ जाती है। न जाने अगले दिन भी सूरज की किरणोॆ की तरह उशका भी मन नयी आशाओं के साथ खुले। मानो कब तक इस आँधी को अपने तन में लेते घुमेगी। ये प्यासी पत्थराई आँखों की प्यास होकर बढ़ता जाएगा? सीख : मनुष्यता नामक चीज़ को अपनी इस भागी हुई ज़िदगी में जोड़ो।
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